गोशा-नशीनी के चिल्लों से परहेज़ फीके ज़माने की तस्बीह के तय-शुदा सब वज़ीफ़ों से बे-लज़्ज़ती कार-ए-दुनिया की बे-रंग क़ौस-ए-क़ुज़ह हाँफती ज़िंदगी के वही रात-दिन मैं ने दफ़्तर से कुछ रोज़ वक़्फ़ा क्या और जंगल की जानिब का रस्ता लिया मैं तुझे टूट के देखता हूँ ख़ुदा-ए-ज़मन झूमती शाख़ पे फूल खिलने की रंगीनियाँ पेड़ की टहनियों पे फ़लक से उतरती हुईं बारिशें और भीगे हुए जानवर बे-तहाशा परिंदे जो ग़ोते लगाएँ खुले आसमाँ में तू झीलों की सब मछलियाँ तैरती हैं खड़े पानियों में मिरे गाँव के खेत में शारीकें बाग़ में कोयलें ग़ार की तीरगी में बसेरे हैं चमगादड़ों के हिरन बद-हवासी में जीवन की ख़्वाहिश की ता'बीर हैं रेग-ज़ारों में बारिश ने सब्ज़े के फ़र्शे को रौशन किया तो कई रंग की तितलियाँ झाड़ियों से नुमूदार होने लगीं और आबी धानों पे इक दूसरे की ज़बाँ को समझते हुए ताइरान-ए-फ़लक का उखुवत-भरा सिलसिला ज़र्द मिट्टी की दीवार पे रेंगती ये सियह च्यूंटियाँ नीलगूँ आसमाँ पे मुहाजिर परिंदों की सब टोलियाँ और लावा उगलती ज़मीं पे भी ख़ेमा-नशीं हैं कई केकड़े गोया तमसील का इक जहाँ पेच-दर-पेच खुलता गया मेरी बे-लज़्ज़ती कसमसाती हुई ख़ाक होने लगी ऐसे अर्ज़ंग में मैं तो गोशा-नशीं हो गया