मैं ने इक सपना देखा है रात का सूरज अपनी काली ज़ुल्फ़ें खोले जाग रहा है शहर में सन्नाटा पसरा है चाँद की उजली चादर ताने मैं अपने घर में सोया हूँ इतने में इक शोर है उठता शब-ख़ूँ मारा शब-ख़ूँ मारा देखो शैताँ फिर आ निकले मैं ने भी सब अपनी मताअ-ए-ज़ोहद-ओ-तक़्वा सब्र-ओ-क़नाअत और आमाल की सोना चाँदी इक इक कर के घर में देखी वो सब अपनी जा पे नहीं थीं इतने में इक शख़्स को देखा मेरे मद्द-ए-मुक़ाबिल था वो कमरे में ये कैसे आया सोच के जब हैरान हुआ तो बढ़ कर उस को छूना चाहा लेकिन ये तो आईना था