काश नूर-ए-सहर की कोई किरन ज़ुल्फ़ से करती मुझ को हम-आग़ोश दिल में जल उठती मिशअल-ए-उम्मीद दूर होती सियाही-ए-ग़म-दोश काश मिल जाता नौनिहाल कोई मुझ को ख़ुश रहना जो सिखा देता ताकि मैं हालत-ए-अलम में भी झूमता गाता मुस्कुरा देता काश कोई हसीन दोशीज़ा राज़-ए-मा'सूमियत बता देती दिल को धो कर हवस के धब्बों से हुस्न-ओ-उलफ़त से जगमगा देती काश मर्द-ए-जवाँ कोई मिलता और वो सोज़-ए-दिल अता करता जिस से मैं मौत से लड़ाता आँख और जीने का हक़ अदा करता काश पीरी वो पुर-शिकोह मिले वक़्त जिस को शिकस्त दे न सके जिस की वो चितवनों में अज़्म-ए-शबाब कम-सिनी याद आए जब वो हँसे काश तारों का ताबनाक जमाल जान-ओ-तन में मिरे समा जाता दूर हो जाती ग़म की तारीकी जिस तरफ़ हो के मैं गुज़र जाता