जहान-ए-इल्म को तस्लीम है वक़ार तिरा अदब के फूलों से दामन है लाला-ज़ार तिरा चमन में यूँ तो बहार आती जाती रहती है मगर सुख़न का है गुलशन सदा-बहार तिरा जमाल-ए-हुस्न की दुनिया में खो गया है वो पढ़ा कलाम है जिस ने भी एक बार तिरा नज़र-फरोज़ वो मा'नी वो दिल-कुशा अल्फ़ाज़ कि है बयाज़ का हर सफ़हा ज़र-निगार तिरा तिरी नज़ीर नहीं रिफ़अत-ए-तख़य्युल में सुख़न है अर्श-ए-मुअ'ल्ला से हम-कनार तिरा तुयूर-ओ-वहशी-ओ-इंसान-ओ-फ़ितरत-ए-रंगीं तिरे कलाम में यकसाँ है सब से प्यार तिरा खुला वरक़ था दिल इंसान का तिरे आगे है तर्जुमानी-ए-जज़्बात शाहकार तिरा नशात-ए-वस्ल है हासिल तिरे फ़सानों में इसी तराने से है साज़ नग़्मा-बार तिरा वो तर्जुमानी-ए-तहज़ीब-ए-हिन्द की तू ने कि यादगार-ए-ज़माना है रोज़गार तेरा दिया है शेक्सपियर को मक़ाम मग़रिब ने है गोशा गोशा-ए-आलम में हक़-गुज़ार तिरा शराब-ए-हुस्न लुटाई है तू ने ख़ुम के ख़ुम रहेगा कैफ़ से सरशार बादा-ख़्वार तिरा है तेरे नग़्मों का शैदा 'हबीब' मुद्दत से इसी शराब में है मस्त बादा-ख़्वार तिरा