एक कत्थई शाम हवाओं में इत्र घोल गया कोई लिखने ख़्वाबों को पलकें जो मूँदीं कि काजल लगा गया कोई सुब्ह हँसती थी और रात भी थी गुनगुनाती पर उफ़ उस की वो ज़ालिम अदा बे-वज्ह मुस्कुराने का सबब दे गया कोई मंज़िल थी दूर और न था कोई हम-सफ़र ऐसी सुनसान राहों में मुझ से मेरी पहचान करा गया कोई चाँद है कुछ मायूस गुल भी हैं गुम-सुम और बे-रंग अरे तुम्हारे भी दिन आएँगे आज तो बाज़ी ले गया कोई मुमकिन न रहा घूँघट के भी छुपाना ये मख़मली हुस्न मेरा सोच ज़माना का जोखिम काला टीका लगा गया कोई