शाइ'री तू परिंदों की चोंचों पे उगती हुई नग़्मगी तू दरख़्तों की छाँव में पलती हुई सादगी तू बहारों के दामन में बिखरी हुई बे-ख़ुदी तू सुलगते सवालों के बातिन में बहकी हुई आरज़ू तू है मा'सूम बच्चे की आँखों में हैरत-कदा कौन समझे तुझे तीरगी रौशनी ज़िंदगी बेबसी आदमी और इक कामनी कौन तेरी ज़बाँ से हुआ आश्ना कौन समझा तुझे पानियों की लड़ाई में मौजों ने तेरी कोई बात मानी है क्या सरहदों पर भड़कती हुई आग ने तेरे क़दमों पे बोसा दिया है कभी शाइ'री आ ज़रा देख ले मेरे पहलू में बरगद के पाले हुए वसवसे अपने माथे से चुप की लकीरें मिटा और बता इस्तिआरों से बरगद की शाख़ें भी कटती हैं क्या शाइ'री तुझ से तो कामनी का कोई एक जज़्बा भी महका नहीं तुझ से दुनिया में क्या इंक़लाब आएगा शाइ'री देख मेरे सिरहाने तमन्नाएँ कितनी हैं ज़ंजीर-ए-पा कितने ख़्वाबों के टूटे हुए पर हैं बिखरे हुए आ कि मिल कर अजल के किसी गोशा-ए-नम में जाने को रख़्त-ए-सफ़र बाँध लें कौन समझा तुझे कौन समझे तुझे