शब की चादर ओढ़ कर आई है लम्हों की महकती धूल में लिपटी हुई मेरी जानिब धीरे धीरे बढ़ रही है और मैं अपने बिस्तर-ए-ख़ाशाक-ओ-ख़स पर नीम-वा आँखों से धुँदली रौशनी को देर से तकता हुआ दम-ब-ख़ुद हूँ झिलमिलाती सोच में खोया हुआ वो क़रीब आती है मेरी साँस में शोले जगाती है मिरी धड़कन की लय को कर रही है तेज़-तर और मुझे बेदार-तर होश्यार-तर हाथ जब बढ़ते हैं छूने के लिए और हो जाती हैं गहरी चादर-ए-शब की तहें और छा जाती है सँवलाए हुए लम्हों की धूल याद बन जाती है इक मौहूम भूल