तमाम शब मिरे कमरे कि ज़र्द खिड़की पर कभी हवाओं के झोंकों ने आ के दस्तक दी कभी धड़कती हुई तीरगी ने सर पटख़ा कभी सिमटती बिखरती सी सर्द बूँदों ने ख़मोश शीशे कि दीवार से गले मिल कर वो एक बात ब-अंदाज़-ए-महरमाना कही जो मैं ने शब की महकती हुई ख़मोशी में रफ़ीक़-ए-राह-ए-मोहब्बत से वालेहाना कही वो रात जिस में सर-ए-दश्त आसमाँ बादल खनकते मोतियों की दिल-नवाज़ रिमझिम में ज़मीं की तिश्ना दहानी के राज़ खोल गया शफ़क़ के रंग मुरादों की शब में घोल गया फिर आज रात फ़लक पर तना है ख़ेमा-ए-अब्र बरसती बूँदों से रौशन हैं ज़ेहन में शमएँ छतों पे नाचती फिरती हैं बे-ज़बाँ परियाँ लहू में रक़्स-कुनाँ है तमाज़त-ए-ख़ुर्शीद ख़ुमार-ए-क़ुर्ब-ए-दिलआरा की हो गई ताईद लरज़ती बूँदों के ये जाँ-गुदाज़ शीश-महल खुले हुए हैं किसी दर्द-आश्ना के लिए तरस रहे हैं किसी जश्न-ए-बे-सदा के लिए दयार-ए-शब में बड़ी देर से उदास हूँ मैं नज़र उठा के मुझे देख तेरे पास हूँ मैं