मुझे होश कब था कि ये मेरी ख़ुशियाँ ग़मों के फ़लक पर हैं बरसात में एक क़ौस-ए-क़ुज़ह झपकते ही आँखें सभी रंग ग़ाएब और अब जब कि क़ौस-ए-क़ुज़ह मिट चुकी है हर इक सम्त से एक इक कर के बादल ग़म-आलूद बादल चले आ रहे हैं ख़ुदा जाने मैं क्यों परेशाँ नहीं हूँ ये क्या माजरा है