आश्नाई गई दिलरुबाई गई सहल लगती थीं जो मंज़िलें खो गईं शाम-ए-बे-कैफ़ में ढल गई आरज़ू ज़ेहन की खिड़कियों से नहीं झाँकता अब कोई माहताब अब कोई शब गए मेरी सोचों को सहलाने आता नहीं अब कोई मंज़र-ए-शादमाँ दिल लुभाता नहीं अब कोई लम्स बन कर मिरी रूह में सरसराता नहीं