ख़्वाहिशों के घने बरगद के तले जो कट जाए ज़िंदगी ख़्वाब-गह-ए-निकहत-ए-गेसू तो नहीं नग़्मा-ए-आरज़ू साँसों में घुला जाता है हसरतें काविश-ए-इंसाँ की जिबिल्लत तो नहीं फिर बुझा सा है निगाहों में चराग़-ए-सहरी रह गए ख़्वाब अधूरे मिरी पलकों के तले अपने ही ख़ूँ में रंगी वस्ल की बेताब घड़ी ज़ख़्म-दर-ज़ख़्म कई वक़्त के ख़ंजर टूटे एक एहसास ही अब ज़िंदा-ओ-पाइंदा है ख़्वाहिशों के घने बरगद के तले ज़ीस्त कटे मौसम-ए-कैफ़ ख़ुश-अंजाम की उम्मीद लिए नीम-ताबाँ ये नज़र हर्फ़-ए-दुआ हो जाए