अब सबा कूचा-ए-जानाँ में गुज़रे है कि नहीं तुझ को इस फ़ित्ना-ए-आलम की ख़बर है कि नहीं बुझ गया मेहर का फ़ानूस कि रौशन है अभी अब उन आँखों में लगावट का असर है कि नहीं अब मेरे नाम का पढ़ता है वज़ीफ़ा कोई अब मिरा ज़िक्र-ए-वफ़ा दर्द-ए-सहर है कि नहीं अब भी तकती हैं मिरी राह वो काफ़िर आँखें अब भी दुज़्दीदा नज़र जानिब-ए-दर है कि नहीं छुप के रातों को मिरी याद में रोता है कोई मौजज़न आँख में अब ख़ून-ए-जिगर है कि नहीं हुस्न को पुर्सिश-ए-बीमार का है अब भी ख़याल मेहर की ज़र्रा ख़ाकी पे नज़र है कि नहीं बे-ख़बर मुझ को ज़माने से किया है जिस ने कुछ उसे मेरी तबाही की ख़बर है कि नहीं खाए जाता है मुझे दर्द-ए-ग़रीब-उल-वतनी दिल पर इस जान-ए-वतन के भी असर है कि नहीं 'जोश' ख़ामोश भी हो पूछ रहा है क्या क्या कुछ तुझे ताड़ने वालों की ख़बर है कि नहीं