काश मैं एक पेड़ बन जाता पेड़ बन कर जहाँ के काम आता रात दिन इक जगह खड़ा रहता गर्मी सर्दी की शिद्दतें सहता ख़ूब बारिश में भीग जाता मगर शिकवा हरगिज़ न लाता मैं लब पर धूप में लोग मेरे पास आते मेरे साए में वो सुकूँ पाते छाँव में आ के बैठ जाते परिंद फूल फल पत्तियों से सब मेरी पूरी करते ज़रूरतें अपनी मैं किसी घर में ईंधन ही बनता या इमारत के काम में आता अल-ग़रज़ जिस तरह भी बन पड़ता ख़िदमत-ए-ख़ल्क़ में लगा रहता