रात हर बार लिए ख़ौफ़ के ख़ाली पैकर ख़ूँ मिरा माँगने बे-ख़ौफ़ चली आती है और जलती हुई आँखों के तहय्युर के तले एक सन्नाटा बहुत शोर किया करता है कुछ तो कटता है तड़पता है बहाता है लहू और खुल जाते हैं रेशों के पुराने बख़िये रात हर बार मिरी जागती पलकें चुन कर अंधे गुमनाम दरीचों पे सजा जाती है और धुँदलाए हुए गर्द-ज़दा रस्तों में एक आहट का सिरा है जो नहीं मिलता है आसमाँ गीली चटानों पे टिकाए चेहरा सिसकियाँ लेता है सहमे हुए बच्चे की तरह और दरीचों पे धरी काँपती पलकें मेरी गुल-ज़मीनों के नए ख़्वाब बुना करती हैं