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ख़ाली आँखों का मकान महँगा है मुझे मिट्टी की लकीर बन जाने दो ख़ुदा बहुत से इंसान बनाना भूल गया है मेरी सुनसान आँखों में आहट रहने दो आग का ज़ाइक़ा चराग़ है और नींद का ज़ाइक़ा इंसान मुझे पत्थरों जितना कस दो कि मेरी बे-ज़बानी मशहूर न हो मैं ख़ुदा की ज़बान मुँह में रखे कभी फूल बन जाती हूँ और कभी काँटा ज़ंजीरों की रिहाई दो कि इंसान इन से ज़्यादा क़ैद है मुझे तन्हा मरना है सो ये आँखें ये दिल किसी ख़ाली इंसान को दे देना
This is a great मकान पर शायरी.