हम भी हैं इस शहर के बासी जिस ने लाखों हाथों में कश्कोल दिया है कल तक था ये अपना आलम राह में वा हाथों में जब तक इक इक चवन्नी रख नहीं देते दिल को चैन नहीं आता था घर वाली भी इक दो ख़ाली पेट में दाने पहुँचा कर ही ख़ुद खाने में सुख पाती थी आज ये मंज़िल आ पहुँची है कल से ज़ियादा ख़ाली हाथ सवाली चेहरे दिल में दर्द जगाते हैं दर्द के मारे जेब में जाता हाथ मगर रुक जाता है हाथ चला भी जाए अंदर तो चवन्नी छुप जाती है घर वाली को पकी हुई हाँडी पे कभी तो जब्र सा करना पड़ता है कभी तो ढक्कन छू ते ही कुछ ऐसी वो डर जाती है जैसे हांडी में काले और अंधे मुस्तक़बिल की नागिन छुप कर बैठी हो