ज़माना वो भी था अब से पहले किसी ख़बर को कहीं रसाई के वास्ते इक सदी का अर्सा लगाना पड़ता था उस के बा-वस्फ़ कभी मुसाफ़िर को बाज़याबी नसीब होती थी और कभी रास्ते में दम उस का टूट जाता था मसाफ़तों का तवील धागा अगरचे गोले में अट गया है तनाब धरती की यूँ खिंची है जहाँ कहीं हो रहा है जो कुछ भी इस अमल में तो दूसरे भी इसी अमल में उसी तरह हज़ उठा रहे हैं ये घर से बाहर के लम्हे लम्हे से बा-ख़बर हैं मगर उन्हें अपने घर की कोई ख़बर नहीं है किसी की ख़ातिर पड़ोस बस्ता है काले कोसों कोई ख़ुद अपने ही घर में एक अजनबी हुआ है दिलों की क़ुर्बत में रेत दूरी की उड़ रही है अजीब सा फ़ासला उगा है