न ये फ़ना है न ये बक़ा है मियान बूद-ओ-अदम ये कैसा तवील वक़्फ़ा है जो नविश्ता हमारी क़िस्मत का बन गया है कनार-ए-दरिया कभी ये बस्ती थी लेकिन अब नेस्ती-ओ-हस्ती के दरमियान इक मक़ाम-ए-बर्ज़ख़ है ऐसा बर्ज़ख़ कि जिस में सदियों से काख़-ओ-कू बाम-ओ-दर मुसलसल शिकस्तगी ख़स्तगी ख़राबी में ख़ीरा-सर हैं हुदूद-ए-हस्ती से हम निकल कर खंडर बने थे मगर खंडर बन के मिट भी जाते कि ये ग़म-ए-ज़िंदगी के रसिया हमारी हस्ती को अपनी यादों से महव कर देते भूल जाते न ये कि हम को तमाशा-गाह-ए-जहाँ बनाते हमारे इबरत-कदों को महफ़ूज़ कर के रखते न ये कि आबादियों की ख़ातिर हमारी बर्बादियों को तारीख़ी यादगारें बनाए रखते वो यादगारें जहाँ पे ये लोग ज़िंदगी के इजारा-दार आ सकें तो आएँ दिनों को राहों की ख़ाक उड़ाईं वो बारगाहें जो अर्श-पाया थीं अदब-ओ-आदाब-ए-ख़ुसरवी में वहाँ ये दराज़ खिसकते जाएँ जहाँ भी जी चाहे अपना नाम और शे'र लिक्खें मचाएँ ग़ौग़ा रक़ीक़ बे-मा'नी गीत गाएँ मगर न औक़ात-ए-पंजगाना में एक भी वक़्त सूनी मस्जिद में झाँक पाएँ किसी की तुर्बत पे फ़ातिहा के लिए न ये अपने हाथ उठाएँ दिनों को यूँही फ़सुर्दा राहों की ख़ाक उड़ाईं दिए जले पर घरों को जाएँ हमारी वीरानियों को वीरान-तर बना कर चले ही जाएँ यहाँ पे छा जाए अंधी अँधियारियों का फिर वो सुकूत-ए-जामिद कि यौम-ओ-सिपर ही जिस के हम-राज़-ओ-हम-नफ़स हैं न दिन की वहशत में कुछ कमी थी कि शब की दहशत में कुछ कसर हो हमारे दिन-रात एक से हैं हमारे दिन-रात उसी वजूद-ओ-अदम के इक वक़फ़ा-ए-मुसलसल में हस्ती-ओ-नीस्ती के बर्ज़ख़ में पा-ब-गुल हैं हमारे दिन-रात इसी दरा-ए-ज़मान वक़्फ़े से मुत्तसिल हैं मगर हमें कब मिलेगी इस दाम से रिहाई हमें मिलेगा अदम की मादूम-ओ-बे-निशाँ गोद का सुकून-ए-अबद ख़ुदाया हमें अज़ल और अबद के चक्कर से कब अता होगी रुस्तगारी ख़ुदा-ए-क़य्यूम-ओ-हय्ये-ओ-क़ाएम जनाब बारी