जब तिरे शहर-ओ-कूचा-ओ-दर से ज़िंदगी सरगिराँ रही तू ने कोई अह्द-ए-वफ़ा की बात ना की तेरे किरदार के चराग़ों में हुस्न जलता रहा तक़द्दुस का वो तक़द्दुस कि जिस का सरमाया नूर-ए-शाइस्तगी-ओ-शर्म-ओ-हया रिफ़अत-ए-दिलबरी-ओ-रंग-ए-हिना शोख़ी-ओ-बे-ख़ुदी-ओ-नाज़-ओ-अदा तू ने अपनी हवस की नज़्र किया फिर भी तू मुतमइन रही कि तिरी फ़िक्र-ओ-फ़ितरत का बोल-बाला था इस जहान-ए-ख़राब में कि जहाँ तेरी फ़िरऔनियत के चर्चे थे मेरी दुनिया पे एक वक़्त पड़ा सुब्हें अपना निखार भूल गईं शामें अफ़्सुर्दगी के नाम हुईं रातें मुँह ढाँप ढाँप कर रोईं फिर भी तुझ को कोई ख़बर न हुई वक़्त गुज़रा गुज़रने वाला था वक़्त ने कब किसी का साथ दिया ऐ मिरी आज की क़लो-पत्रा और अब जब कि ज़िंदगी के लिए कोई फ़िक्र-ए-नशात-ओ-ग़म भी नहीं अपनी चाहत का वास्ता दे कर अब मुझे क्यों बुला रही है तू जब तिरे शह्र-ओ-कूचा-ओ-दर से ज़िंदगी सरगिराँ रही तू ने कोई अहद-ए-वफ़ा की बात न की