मेरे रुख़्सार पे जो हल्की हल्की झुरियाँ आ गई हैं यक़ीनन उस को भी आ गई होगी ज़िंदगी के सफ़र में उम्र के जिस ढलान पर मैं खड़ा हूँ यक़ीनन वो भी वहीं आ गया होगा रोज़-ओ-शब के मद्द-ओ-जज़्र रंज-ओ-ग़म आँसू-ओ-ख़ुशी सर्द गर्म सुब्ह-ओ-शाम से उलझते हुए चढ़ती उम्र का वो चुलबुला-पन जो अब संजीदगी में ढल चुका है ऐन-मुमकिन है उस के भी मिज़ाज का हिस्सा होगा हाँ ये मुमकिन है ग़ैर-मुतवक़्क़े तौर पे सर-ए-राह अगर तुम कहीं कभी मिल भी जाओ तो तुम्हें पहचानना मुश्किल भी होगा मगर मेरा दिल मुझ से कह रहा है मुझे बहला रहा है तुम एक रोज़ मुझ से मिलोगे और ज़रूर मिलोगे