जब कोई काम न हो तब भी मुझे सोचते रहने का इक काम तो है राहत ओ दर्द से मब्सूत कोई नाम तो है यूँही बैठा था मैं उस नाम से वाबस्ता मोहब्बत के, उदासी के दरीचे खोले इतनी चुप थी कि ख़यालात की चाप अपना एहसास दिलाती थी मुझे बे-कली हस्ब-ए-तलब उस ने न मिल सकने की हस्ब-ए-मामूल सताती थी मुझे और फिर फ़ोन की घंटी खंकी तेरी आवाज़ का झरना फूटा और वो नाम मुजस्सम हो कर मेरे अतराफ़ में चकराने लगा मैं ने देखा कि मिरे कमरे में बे-कली और उदासी का दरीचा तो कोई था ही नहीं