मैं ज़िंदगी की कड़ी मसाफ़त तुम्हारी चाहत मिले बिना भी मुझे यक़ीं है कि काट लूँगा मैं ऐसे लोगों को जानता हूँ जिन्हों ने अपनी तमाम उम्रें सराब-सायों की जुस्तुजू में यही समझ कर गुज़ार दी हैं कि चाहतों के ये ख़्वाब-लम्हे ये फुर्क़तों के अज़ाब-लम्हे कभी बनेंगे गुलाब-लम्हे ये लोग वो हैं कि जिन के यादों के कैनवस पर विसाल-ए-मौसम की एक मुबहम लकीर भी तो नहीं बनी है प मेरी यादों के हाथ में तो तुम्हारी पोरों का लम्स अब तक गुलाब बन कर महक रहा है मुझे यक़ीं है कि जब भी चाहूँ तुम्हारे बे-हद हसीन हाथों को थामने का हर एक लम्हा मिरे ख़यालों के दाएरे से निकल के मुझ को विसाल-मौसम की ख़ुशबुओं में मुहीत कर दे मुझे यक़ीं है मैं ज़िंदगी की ये सब मसाफ़त कड़ी मसाफ़त तुम्हारी यादों की ख़ुशबुओं में भी काट सकता हूँ काट लूँगा