ऐसा क्यूँ होता है जब बर्ग ज़र्द सुकूत-आश्ना ख़लाओं में आवारा ख़ामोशियाँ मौसम-ए-ख़िज़ाँ की अलामत धड़कनें समाअ'त से मावरा गर्दिशें नुक़्ता-ए-इंजिमाद पर और फिर कोई सुर्ख़ गुलाब टहनी से टूट जाता है ये कैफ़ियत सारे चमन को हैरत-ज़दा कर देती है गुलाब के जुदा होने पर सिसकियाँ तो उभरती हैं मगर गुलाब की ख़ुश्बू का अमल जारी रहता है