हिसार-ए-रंज में रहते हुए तुझे चाहूँ ग़ुबार-ए-राह-ए-यक़ीं में सदा तुझे देखूँ जबीन-ए-वक़्त पे हर-आन बस तुझे लिक्खूँ चराग़-ए-हिज्र बनूँ रात-भर तिरी आँखों के जंगलों में करूँ रौशनी उड़ाऊँ तिरी सुनहरी नींद अँधेरों भरे मकानों में तिरे वजूद से अपना वजूद बाँध के मैं समुंदरों में करूँ रक़्स जल-परी की तरह सुनाऊँ शाइ'री तुझ पर लिखी ग़ज़ालों को बनाऊँ लम्स तिरा इत्र में करूँ नीलाम तमाम-शहर के आगे उसे बने जन्नत हर इक दरीचा खुले जो क़बा तिरी ही महक उठे जहाँ से भी गुज़रूँ फ़क़त तिरी ख़ुश्बू करे तवाफ़ मिरा कू-ब-कू फ़क़त तो हो ऐ शख़्स तेरे जमाल-ए-जवान की सौगंद धड़क रहा है हमेशा मिरी रगों में तू तिरा सरापा अदब की किताब जैसा है तुझे पढ़ूँ तुझे लिक्खूँ तुझे सुनूँ हर-वक़्त किसी सहीफ़े की तफ़्सीर तर्जुमा तिरा जिस्म किसी क़दीम क़लम से लिखा हुआ तिरा इस्म किसी चराग़ से मिलता हुआ तिरा चेहरा किसी दहकती हुई शाम सी तिरी आँखें किसी बिखरती हुई दास्तान सी ज़ुल्फ़ें किसी गुलाब से आरास्ता तपे हुए गाल लरज़ते होंट शिकस्ता-सुख़न डरा लहजा चमकते हाथ सुलगती हुई जबीं पे जमी ग़मों की गर्द मुझे कि रही है चूम के मैं निढाल पैर तिरे आबले गिनूँ सारे थकान सारी उतारूँ तिरी दबाऊँ सर पिलाऊँ शर्बत-ए-संदल सँवार के तिरे बाल करूँ मैं प्यार से कंघी लिखूँ सफ़र पे तिरे मैं ऐसी नज़्म कोई जो तुझे रखे सरसब्ज़ तिरी बुझी हुई आँखें भरूँ मैं ख़्वाबों से तिरे दुखों का सुखों से सदा इलाज करूँ सुनाऊँ नज़्म तुम्हें मैं गले लगा के नई तुम्हारी शर्ट पे में आँसुओं से काज करूँ