मैं ने आशाओं की आँखें चेहरे होंट और नीले बाज़ू नोच लिए हैं उन के गर्म लहू से मैं ने अपने हाथ भिगो डाले हैं दोपहरों की तपती धूप में ख़्वाहिशें अपने जिस्म उठा कर चोबी खिड़की के शीशों से अक्सर झाँकती रहती हैं आँखें होंट और ज़ख़्मी बाज़ू जाने क्या कुछ मुझ से कहते रहते हैं जाने क्या कुछ उन से कहता रहता हूँ रात गए तक ज़ख़्मी ख़्वाहिशें बिस्तर की इक इक सिलवट से निकल निकल कर रोती हैं और सहर को उन के ख़ून से अपने हाथ भिगो लेता हूँ