या-रब तिरे बंदों से क़ज़ा खेल रही है इक खेल ब-उन्वान-ए-दग़ा खेल रही है जिस खेल को सरसर ने भी खेला न चमन में उस खेल को अब बाद-ए-सबा खेल रही है उलझे हुए हालात के तेवर हैं ख़तरनाक बदले हुए मौसम की हवा खेल रही है रिंदान-ए-तही-दस्त सज़ा-वार-ए-सुबू हैं! टूटी हुई तौबा से घटा खेल रही है लग़ज़ीदा क़दम इज़्न-ए-ख़िरद माँग रहे हैं दुज़्दीदा निगाहों में हया खेल रही है औरंग-ए-शही हेच है रिंदों की नज़र में महलों की बुलंदी पे क़ज़ा खेल रही है एहराम से जुब्बे से मुसल्ले से अबा से 'शोरिश' मिरी बे-ख़ौफ़ नवा खेल रही है