पहले जितनी बातें थीं वो तुम से थीं तेरे ही नाम की एक रदीफ़ से सारे क़ाफ़िए बनते और बिगड़ते थे मैं अपने अंधे हाथों से तेरे जिस्म के पुर-असरार ज़मानों की तहरीरें पढ़ लेता था और फिर अच्छी अच्छी नज़्में घड़ लेता था तू भी तो काग़ज़ के फूलों की मानिंद हर मौसम में खिल जाती थी ओर मैं हिज्र-ओ-विसाल की ख़ुश्की और तरी पर तेरे लिए हर हाल में ज़िंदा रह लेता था अपने लिए भी तेरी तरफ़ से सारी बातें कह लेता था तेरी सूरत मेरे होने और न होने जागने सोने की इस धूप और छाँव में एक ही जैसी रहती थी और मेरी साँसों का बख़्त तुम्हारे ही पल्लू से बँधा था लेकिन अब तो तेरी साड़ी के सब लहरए मेरे जिस्म को डस भी चुके हैं अब तो जाओ मेरी पुरानी नज़्मों की अलमारी में आराम से जा कर सो जाओ क्यूँकि मैं अब अपने आप से बातें करना चाहता हूँ