निगाहों से ओझल रहो तुम हज़ारों पर्दों के पीछे ग़ाएब हो जाओ और दिल में ऐसा सन्नाटा छा जाए जैसा जनाज़ा निकलने के बाद किसी घर में होता है लेकिन न जाने क्या है कि जब ख़्वाब और बेदारी के दरमियान खोई खोई सी अलम-नाक बोझल रात ख़त्म होने के क़रीब आती है और बेचैनी ख़ुद थकी हारी बे-होशी के गले में बाहें डाल कर सो जाती है उन्हीं भोर के अध-जगे अध-सोए धुँदलकों में ऐसा लगता है कि मेरी बंद आँसू भरी डबडबाई आँखों को किसी ने हल्के से चूम लिया