लक़ड़हारे चलो इस शहर से और शहर के लोगों से जितनी दूर मुमकिन हो निकल जाएँ उसी जंगल की जानिब जहाँ से आए थे हम तुम लक़ड़हारे वहीं की लकड़ियाँ काटें वहीं रेवड़ चराएँ धूप से सब्ज़े का जो रिश्ता है वो रिश्ता उगाएँ कुएँ के मीठे पानी से चराग़ अपने जलाएँ लक़ड़हारे यहाँ तो अली बाबा और उस का भाई क़ासिम वो मरजीना हो या हो मुस्तफ़ा दर्ज़ी कि हों चालीस डाकू सभी इस शहर की दीवार में महसूर सिम-सिम भूल बैठे हैं लक़ड़हारे तिलिस्म-ए-शहर में उन को यूँही हैरान परेशान छोड़ कर निकलें उसी जंगल की जानिब जहाँ पर परिंदे हैं मगर ऐसे नहीं हैं दरिंदे हैं मगर ऐसे नहीं हैं