फिर उसी शहर में आए हो पलट कर कि जहाँ चंद होते हैं जो तुम ने दिखाए थे ख़्वाब चंद दिन होते हैं जब तुम ने सजाए थे गुलाब जिन में ख़ुश्बू भी थी और रंग भी मानिंद-ए-शहाब तुम गए ख़्वाब रहे और ज़माने के अज़ाब ढूँडते रह गए लब कितने सवालों के जवाब अब जो आए हो तो इतना सा करम कर जाना अब के बीमार से ख़्वाबों की महक मत लाना अब जो दिखलाना तो कुछ ख़्वाब नए दिखलाना ऐसे कुछ ख़्वाब ज़मीनों को जो शादाब करें ऐसे कुछ ख़्वाब जो शहरों को भी शादाब करें ऐसे कुछ ख़्वाब जो तक़दीर ख़यालात के हों ऐसे कुछ ख़्वाब जो मीरास हों इंसानों की तुम जो ऐसा न करोगे तो वही ग़म होंगे रब्त-ए-बाहम के न अस्बाब फ़राहम होंगे मुतमइन ख़ुद से कहीं तुम न कहीं हम होंगे