किस से पूछूँ जब भी कोई नज़्म मुकम्मल हो जाती है मेरे अंदर एक ख़ला क्यों भर जाता है क्यों मुझ को ऐसा लगता है जैसे मेरे ख़्वाब किसी ने छीन लिए हैं ज़ख़्मों के महताब किसी ने छीन लिए हैं किस से पूछूँ नज़्म मुकम्मल होते ही क्यों बे-चेहरा यादों के पंछी दर्द के मौसम मेरे बदन से क्यों हिजरत करने लगते हैं मेरे अंदर तन्हाई का ख़ौफ़ उतरने लगता है क्यों किस से पूछूँ लम्हे भर की तख़लीक़ी लज़्ज़त की ख़ातिर मैं सदियों के ग़म से अपनी महरूमी पर क्यों राज़ी हो जाता हूँ