किस तरह रात की दहलीज़ कोई पार करे By Nazm << कोई ज़ी-रूह न था ख़्वाब के आख़िरी हिस्से म... >> ख़्वाब चुनती हुई आँखें हैं परिंदों की तरह और ये जिस्म कि जैसे कोई बे-बर्ग शजर ग़ैर-वाज़ेह सा तसव्वुर कोई मुबहम सा ख़याल किस तरह रात की दहलीज़ कोई पार करे Share on: