जिस्म बे-जान है पत्थर सी बनी हैं आँखें और इक ख़ौफ़ का मल्बूस पहन कर कोई घूरता रहता है हर-वक़्त ख़ला में शायद आईना-ख़ानों की मक़हूर-नुमा चाहत में अक्स-दर-अक्स बिखरती हुई परछाइयाँ हैं और सन्नाटों की गम्भीर सदा है हर-सू शाख़-दर-शाख़ ख़िज़ाँ नौहा-कुनाँ है हर-सू ऐसे माहौल में जीना भी है ख़्वाब के आख़िरी हिस्से में हुसैन-इब्न-ए-अली एक पैग़ाम यही दे के गुज़र जाते हैं