बरहना जिस्म पसीने में ग़र्क़ नंगे पाँव मगर सुकून है यूँ दिल में जैसे ठंडी छाँव गेहूँ के खेत से कुटिया में अपनी आया है तसव्वुरात की दुनिया भी साथ लाया है है इक फटी हुई कम्बल ग़रीब काँधों पर सियाह अब्र पे रह रह कर उठ रही है नज़र पड़ा है खेत का सामान एक कोने में हैं इस की ज़ीस्त के असरार पा के खोने में नफ़स है फूली हुई जैसे फूँक भत्ते की रखी है कान पे बीड़ी बना के पत्ते की लहू की लहर सी है मौजज़न पसीने में बका-ए-दहर का है राज़ उस को जीने में हर एक साँस है इस की बहार-ए-आज़ादी कि इस ग़ुलाम का दिल है दयार-ए-आज़ादी