सफ़ेद दूध सी उजली कपास इस की है ये खेत उस के हैं शान-ए-लिबास इस की है सुकूँ की नींद है मख़मल की घास इस की है कि फूल फूल में ख़ुशबू है बास इस की है मिरे वतन मिरे खेतों की शान क्या कहने हर एक शहर को शीर-ओ-शकर भी देता है वही किसान जो ख़ून-ए-जिगर भी देता है अमीर-ए-शहर को वो सीम-ओ-ज़र भी देता है ब-नाम-ए-ख़ोशा-ए-गंदुम गुहर भी देता है मिरे वतन मिरे खेतों की शान क्या कहने बग़ैर इस के नहीं आन-बान दिल्ली की इसी के नाम से बाक़ी है शान दिल्ली की ये मुतमइन ही न होगा तो कैसी शादाबी हर एक सम्त अंधेरे तमाम बे-ख़्वाबी मिरे वतन मिरे खेतों की शान क्या कहने इसी के दम से उभरती है हिन्द की तस्वीर इसी के नाम सँवरती है हिन्द की तक़दीर तमाम खेत हैं शादाब हिन्द की तफ़्सीर बग़ैर इस के नहीं ख़्वाब-ए-हिन्द की ता'बीर मिरे वतन मिरे खेतों की शान क्या कहने बहार इस में नहीं है तो फिर चमन क्या है ये गुल्सिताँ ही नहीं है तो बाँकपन क्या है जो तर्जुमाँ न हो इस की तो अंजुमन क्या है बयाँ इसी का नहीं है तो फिर सुख़न क्या है मिरे वतन मिरे खेतों की शान क्या कहने हुकूमतें भी इसी की हैं राज भी इस का अदालतें भी हैं ये तख़्त-ओ-ताज भी इस का हर एक दौर था इस का ये आज भी इस का बदलते रंगों से निखरा समाज भी इस का मिरे वतन मिरे खेतों की शान क्या कहने