मक़्सद की आँख का नूर आख़िर हमारी निय्यतों में ही चमकता है मुंजमिद होने के डर से मुझे आने वाले मेहमानों का इंतिज़ार ज़ियादा करना होगा मेरी हलावत मेरी रगों में मचल रही है एक मिठास भरी घुलावट जो हलक़ पर लज़्ज़त की दस्तक देती है मैं फ्रीज में पड़ी अपनी करवटों में इतरा रही हूँ जिस के नुक़ूश बिलोरीं बोतल पर रक़्स करते हैं आने वालों का इंतिज़ार लम्बा हो रहा है मेरी रगों में बुरूदत जम रही है ख़ाली होने का शौक़ बड़ा ज़ालिम होता है मगर ये क्या ये आवाज़ कैसी आज मेहमान नहीं आ रहे क्या मेरी मुराद और मेरा शेर बाक़ी रहेगा