पुरानी बात है लेकिन ये अनहोनी सी लगती है बनी-क़ुद्दूस के बेटों का ये दस्तूर था वो अपनी शमशीरें नियामों में न रखते थे मुसल्लह हो के सोते थे और उन के ख़ूब-रू गबरू कसे तीरों की सूरत रात-भर मिशअल-ब-कफ़ ख़ेमों के बाहर जागते रहते बनी-क़ुद्दूस के बेटे बलाओं और अज़ाबों को हमेशा लग़्ज़िश-ए-पा का सिला गिनते गुनाहों से हज़र करते मगर इक दिन कि वो मनहूस साअत थी ख़राबी की ज़नान-ए-नीम-उर्यां देख कर ख़ाना-ब-दोशों की कुछ ऐसे मर-मिटे जब रात आई तो बनी-क़ुद्दूस के बेटों की शमशीरें नियामों में पड़ी थीं और दीवारों पे लटकी थीं वो पहली रात थी ख़ेमों के बाहर घुप-अंधेरा था फ़ज़ा में दूर तक कुत्तों की आवाज़ों का नौहा था