तुम्हारा देस कौन सा है या अगर हमारी तख़्तियों पे जुदाई लिखी हो और दूरी कभी तय न की जा सकती हो क्या फ़र्क़ पड़ता है अगर कहीं किसी ज़माने किसी मक़ाम किसी हद पर मैं और तुम एक दूसरे के लिए सिर्फ़ एक मद्धम होता हुआ नुक़्ता हों और तमाम सफ़र बे-मा'नी हो मैं जानती हूँ कि नई ज़मीन तुम्हें रास आ गई है तुम्हारे पैरों में आराम-दह जो गुज़र हैं और रस्ते इत्मीनान भरे हैं तो फिर इस से क्या फ़र्क़ पड़ता है कि तुम लकीर के किस तरफ़ रहते हो और मैं किस तरफ़ ओर ये कि दोनों अतराफ़ के दिन रात एक दूसरे से कितने मुख़्तलिफ़ हैं मेरी आँखें तुम्हारी याद से वुज़ू करती हैं और दिल तुम्हें मोहब्बत के हदिये भेजते नहीं थकता