सुर्ख़ होंटों के असर से उदास रातों के बे-क़रार लम्हों में जब कभी यादों के आसेब ज़ेहन पे अपने वजूद के मोहर लगाते हैं तो दिल किसी अजनबी मुस्तक़बिल के इम्कान से घबराने लगता है सोचों की बुलंदी से सरगोशियों की सदाएँ ख़याल को थपथपा कर सवाल करती हैं क्या पैकर अपने साए की हद से निकल कर किसी नए जहाँ की ता'मीर कर सकता है क्या किसी मस्त नदी के क़दमों में कोई अपने सरमाए की भेंट चढ़ा सकता है आओ कुछ बात करें बताओ क्या ये मुमकिन है