जज़्बों को लफ़्ज़ों का जामा पहना कर उन की रवानी को कम मत करो नाज़ुक हैं ये आबगीने हैं ये शीशे की मानिंद खनकते हैं ये आँखों से दिल में उतर जाते हैं दिल से रगों में समा जाते हैं राहें ख़ुद अपनी बना लेते हैं बातों की उन को ज़रूरत नहीं दिन माह-ओ-साल और सदियाँ भी गर गुज़र जाएँ फिर भी कुछ ग़म नहीं ख़िज़ाँ से न दो चार हों ये कभी गर्मी-ए-जज़्बात बाक़ी रहे रिश्तों में नर्मी क़ाएम रहे