ये आँसू बे-सबब बनते नहीं हैं इन्हें तुम सिर्फ़ पानी कह के मत टालो बहुत से हादसे आए मगर ये सुनामी-लहरें हर आफ़त से आगे हैं हमारे दिल हिला कर आँसुओं का सैल बन कर बह रहा है हज़ारों बे-सहारा लोग यूँ भी मरने वाले थे मगर ज़ेर-ए-ज़मीं पानी समुंदर की ये लहरें जिस्म के टुकड़े को मिट्टी बना कर खा गई हैं जिसे सब ज़लज़ले का नाम देते हैं आख़िर समुंदर की ये लहरें ज़मीं को चाक कर के आईं हैं इस तरह मिट्टी को मिट्टी से मिलाती हैं हमारे अश्क बहने दो कि ग़म हर गाम रग रग में समाया है हमें ग़म था हमारी इब्तिदा ग़म से हुई थी और इंतिहा भी ग़म है मगर ये आँसुओं का सैल बहने दो कि शायद कुछ सकूँ मिल जाए मेरे दीदा-ए-बीना को आख़िरी लम्हे