मैं अपने ख़ूँ को जवाब देता हूँ निचला हिस्सा मिरे बदन का जो ज़ात भी काएनात भी था मिरा ही अपना अटूट हिस्सा था मैं ही था मेरा अपना मैं था अगर मैं हैवाँ की पहली मंज़िल से इर्तिक़ा के हज़ार ज़ीनों पे चढ़ता चढ़ता वजूद की एक एक मंज़िल फलाँग कर अहद-ए-मंसबी के किसी भी आइंदा कल की जानिब रवाँ-दवाँ हूँ तो मुझ को हैवाँ से बुग़्ज़ क्या है कि इर्तिक़ा की ये पहली मंज़िल मिरी रग-ओ-पै में जिस्म के रेशा-हा-ए-मू में रची हुई है बसी हुई है ये मेरा कल है जो मेरे हाज़िर का आज भी है मिरे गुज़िश्ता से आज पैवस्त मेरा माज़ी ही मेरे तन का वो निचला हिस्सा है जिस को झुटला के जिस से डर कर जिसे कहीं काँट छाँट करने के बा'द रूद-ए-नफ़ी के तारीक चाह में फेंक कर मैं आधे अधूरे तन को लिए हुए कैसे जी सकूँगा