ज़र्द हाथों पर काली लकीरें फैल रही हैं दिल के निहाल पर जज़्बों के पंछी काली अँधेरी रातों में नाच नाच के थक जाते हैं आँख किनारे आ गई काई बढ़ती है रौशन सुब्हों की आवाज़ें बेबस चीख़ों को कैसे रोकें हर दिन अपने होने की पहचान में गुम-सुम शर्मिंदा कोनों में मुँह को छुपाए रोता है किस की आस में ठंडी पुर्वा आँगन आँगन घूम रही है पलकें पोंछो वर्ना हर एक आहट अपने चेहरे पर ख़ुशियों को सजाए हम को लूटने आएगी हम फिर फ़ाहिशा आस के घुँगरू की हर ताल पर जी उठेंगे हौले हौले पलकें खोले दरवाज़े से झांकेंगे इक पल सुख का लम्हा हम से सारी उम्रों सारी घड़ियों का लहू निचोड़ेगा हम को ख़ून थुकवाएगा