लहू पुकारता है हर तरफ़ पुकारता है सहर हो, शाम हो, ख़ामोशी हो कि हंगामा जुलूस-ए-ग़म हो कि बज़्म-ए-नशात-आराई लहू पुकारता है लहू पुकारता है जैसे ख़ुश्क सहरा में पुकारा करते थे पैग़म्बरान-ए-इसराईल ज़मीं के सीने से और आस्तीन-ए-क़ातिल से गुलू-ए-कुश्ता से बेहिस ज़बान-ए-ख़ंजर से सदा लपकती है हर सम्त हर्फ़-ए-हक़ की तरह मगर वो कान जो बहरे हैं सुन नहीं सकते मगर वो क़ल्ब जो संगीं हैं हिल नहीं सकते कि उन में अहल-ए-हवस की सदा का सीसा है वो झुकते रहते हैं लब-हा-ए-इक़तिदार की सम्त वो सुनते रहते हैं बस हुक्म-ए-हाकिमान-ए-जहाँ तवाफ़ करते हैं अर्बाब-ए-गी-ओ-दार के गिर्द मगर लहू तो है बे-बाक ओ सरकश ओ चालाक ये शोला मय के प्याले में जाग उठता है लिबास-ए-अत्लस-ओ-दीबा में सरसराता है ये दामनों को पकड़ता है शाह-राहों में खड़ा हुआ नज़र आता है दाद-गाहों में ज़मीं समेट न पाएगी उस की बाँहों में छलक रहे हैं समुंदर सरक रहे हैं पहाड़ लहू पुकार रहा है लहू पुकारेगा ये वो सदा है जिसे क़त्ल कर नहीं सकते