अभी इक शाख़ से हँसते हुए इक फूल की ख़ुश्बू जो टूटी है उसी ने मौसमों को राग की ता'लीम बख़्शी है उसी ने दर्द को तासीर में बहना सिखाया है मगर इक ख़्वाब जो रेशम के धागों में कहीं उलझा हुआ सा है उसे मैं जागते सोते सुरों में गुनगुनाता हूँ उसे मैं रौशनी के आइने में देख लेता हूँ मुसलसल रात के लम्हे मिरी पलकों पे हर-दम ख़्वाब बुनते हैं मुझे शब-भर जगाते हैं मिरे माज़ी के कुछ धागे अभी तक मुझ से उलझे हैं मिरी तन्हाइयों में गूँज है अब तक किसी मा'सूम बातिन की किसी रंगीन तितली की किसी जादू-बयाँ की और किसी शफ़्फ़ाफ़ गुलशन की