दर्द के तआ'क़ुब में फ़स्ल-ए-दिल यूँ रहती है अन-गिनत जज़ीरों से कश्तियाँ सी आती हैं काग़ज़-ओ-क़लम के बीच रास्ता बनाती हैं लफ़्ज़ और मा'नी में डूब डूब जाती हैं दर्द-ए-दिल की फ़स्लें तब ख़ूब लहलहाती हैं फूल से खिलाती हैं गुनगुनाती जाती हैं मुस्कुराती जाती हैं वुसअ'तों का जंगल सा फैल फैल जाता है