मुस्कुरा ऐ ज़मीन तीरा-ओ-तार सर उठा ऐ दबी हुई मख़्लूक़ देख वो मग़रिबी उफ़ुक़ के क़रीब आँधियाँ पेच-ओ-ताब खाने लगीं और पुराने क़िमार-ख़ाने में कोहना शातिर बहम उलझने लगे कोई तेरी तरफ़ नहीं निगराँ ये गिराँ-बार सर्द ज़ंजीरें ज़ंग-ख़ुर्दा हैं आहनी ही सही आज मौक़ा है टूट सकती हैं फ़ुर्सत-ए-यक-नफ़स ग़नीमत जान सर उठा ऐ दबी हुई मख़्लूक़