मैं ने चाहा था उसे रूह की राहत के लिए आज वो जान का आज़ार बनी बैठी है मेरी आँखों ने जिसे फूल से नाज़ुक समझा अब वो चलती हुई तलवार बनी बैठी है हम-सफ़र बन के जिसे नाज़ था हमराही पर रहज़नों की वो तरफ़-दार बनी बैठी है किसी अफ़्साने का किरदार बनी बैठी है उस की मासूमियत-ए-दिल पे भरोसा था मुझे अज़्म-ए-सीता की क़सम इस्मत-ए-मर्यम की क़सम याद हैं उस के वो हँसते हुए आँसू मुझ को ख़ंदा-ए-गुल की क़सम गिर्या-ए-शबनम की क़सम उस ने जो कुछ भी कहा मैं ने वही मान लिया हुक्म-ए-हव्वा की क़सम जज़्बा-ए-आदम की क़सम पाक थी रूह मिरी चश्मा-ए-ज़मज़म की क़सम मैं ने चाहा था उसे दिल में छुपा लूँ ऐसे जिस्म में जैसे लहू सीप में जैसे मोती उम्र भर मैं न झपकता कभी अपनी आँखें मेरे ज़ानूँ पे वो सर रख के हमेशा सोती शम्-ए-यक-शब तो समझता है उसे एक जहाँ काश हो जाती वो मेरे लिए जीवन-जोती दर-ब-दर उस की तमाज़त न परेशाँ होती मैं उसे ले के बहुत दूर निकल जाऊँ मगर वो मिरी राह में दीवार बनी बैठी है ज़िंदगी भर की परस्तिश उसे मंज़ूर नहीं वो तो लम्हों की परस्तार बनी बैठी है मैं ने चाहा था उसे रूह की राहत के लिए वो मगर जान का आज़ार बनी बैठी है किसी अफ़्साने का किरदार बनी बैठी है