खुजूरों से महकी हुई शाम थी शुतुर पर माल ओ अस्बाब था और मैं इक सराए के दर पर खड़ा रात करने को इक बोरिए का तलबगार था टिमटिमाती हुई शम्अ की लौ में इब्न-ए-तमामा का साया (जो माहौल घेरे हुए था) उसे देख कर यूँ लगा जैसे वो रौशनी फांकता हो क़वी-उल-जसामत हरीस आँख से लहज़ा लहज़ा टपकती कमीनी ख़ुशी भाव-ताव में चौकस चौकस असा और लटकी हुई रीश (दो अज़दहों की तरह) वो सराए की गंदी फ़ज़ा को महकता हुआ ख़ुल्द कहता मुसाफ़िर दिरम और दीनार दे कर वहाँ ख़्वाब करते मुझे उम्म-ए-लैला की फ़रमाइश खा गई हैं ज़माने का शुतुर आन पहुँचा है ऐसे कुओं तक जहाँ तेल है मैं मगर आज भी इस सराए में इब्न-ए-तमामा से बातें किए जा रहा हूँ अभी उम्म-ए-लैला की कुछ हसरतें और भी हैं