इस इक लोक गाथा ने बचपन के वो दिन मुझे फिर दिलाए हैं याद कि जब मैं कई बार पापा कि गोदी में बैठी बड़ी आँख वाले भयानक बड़े अज़दहा की कथा सुन रही थी जिसे शाहज़ादे ने ही मार डाला था आख़िर ये कुछ इस तरह लग रहा था कि जैसे ये कल ही हुआ हो भयंकर नज़र आने वाला बड़ा अज़दहा जब इधर शाहज़ादे को खाने को लपका तो मैं ने झट अपना चेहरा छुपा डाला पापा के काँधों के बीच यही जान कर मेरे पापा बचा लेंगे मुझ को अगर अज़दहे ने यही फ़ैसला कर लिया हो कि मेरा बदन शाहज़ादे से ज़ियादा लज़ीज़ ही तो होगा जो अब इस क़दर अपने पापा से दूर मिलूँ अज़दहा से लड़ूँगी मैं उस से ज़रूर अपने पापा की गहरी मोहब्बत के बल पर कि वो अज़दहा अब भी रहता है तहज़ीब के मारे लोगों के बीच कि आख़िर मिरे पापा की लोक-गाथाओं ने ही दिखाया है मुझ को कि अच्छाइयों ही की होती जीत इस जहाँ में चुनाँचे मुझे जिस क़दर अपने पापा पे पक्का यक़ीं है उन की सब लोक-घाथाओं पर भी है उतना यक़ीं